बस्तर के कुपोषित बच्चों की संख्या लगातार बढ़ रही है, लेकिन समाधान के बजाय यह मुद्दा राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का विषय बन गया है। आंगनबाड़ी केंद्रों में दर्ज 83 हजार बच्चों में से 14,563 बच्चे कुपोषण से पीड़ित हैं। इनमें से दो हजार से अधिक गंभीर रूप से कुपोषित हैं।
महिला एवं बाल विकास विभाग के अनुसार, जिले में कई योजनाएं चलाई जा रही हैं, लेकिन जागरूकता की कमी और संसाधनों की सीमाएं अब भी बड़ी बाधा हैं। जबकि भाजपा दावा करती है कि उसके शासन में रेडी टू ईट भोजन और पोषण सप्लीमेंट से सुधार हुआ है, विपक्ष का कहना है कि पोषण योजनाओं में कटौती से बच्चों की स्थिति और बिगड़ी है।
कांग्रेस का आरोप है कि भाजपा सरकार ने अंडा, दूध और पोषण लड्डू जैसे भोजन बंद कर दिए हैं, जो डीएमएफटी फंड से दिए जाते थे। वहीं भाजपा नेता कांग्रेस शासन को भ्रष्टाचार से भरा बताकर महिला स्व-सहायता समूहों से काम छीनने की बात कर रहे हैं।
लेकिन जमीनी स्थिति यह है कि पिछले दो वर्षों में 8 हजार बच्चों को एनआरसी में भर्ती किया गया, और केवल 60 प्रतिशत ही ठीक हो सके। इसका मतलब यह है कि न तो योजनाएं पूरी तरह कारगर हैं और न ही उनका निरीक्षण और अमल मजबूत है।
इस लड़ाई में सबसे अधिक नुकसान उन्हीं मासूमों का हो रहा है, जिनका भविष्य इसी धरातल पर आकार ले रहा है। क्या राजनीति से ऊपर उठकर कोई व्यवस्था इन्हें सशक्त बनाने की ठोस पहल करेगी?
कुपोषण को केवल चुनावी हथियार न बनाएं – यह बच्चों के जीवन का प्रश्न है, और इसका उत्तर जिम्मेदारी से ही दिया जा सकता है।