96 लाख की प्लास्टिक सड़क एक महीने में ढही, बस्तर के ग्रामीणों का फूटा गुस्सा
बस्तर जिले की वह बहुचर्चित सड़क, जिसे प्रदेश सरकार ने पर्यावरण-अनुकूल नवाचार के रूप में प्रचारित किया था, पहली ही बारिश में बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गई। कालागुड़ा से कावापाल तक बनी यह प्लास्टिक मिश्रित सड़क अब सरकारी दावों की पोल खोल रही है।
जून में बनी, जुलाई में टूटी
प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना (PMGSY) के अंतर्गत बनी यह सड़क जून 2025 में पूरी तरह से तैयार हुई थी। इसमें कुल 96.49 लाख रुपये खर्च हुए और निर्माण में 500 किलो प्लास्टिक वेस्ट का उपयोग किया गया। यह योजना एक पर्यावरणीय मॉडल के तौर पर पेश की गई थी।
लेकिन अब, महज एक महीने बाद ही सड़क पर जगह-जगह गड्ढे बन गए हैं। ऊपरी परतें उखड़ चुकी हैं और सड़क की हालत ग्रामीणों के लिए सिरदर्द बन गई है।
प्रचार से पहले परख ज़रूरी थी
मुख्यमंत्री के सोशल मीडिया हैंडल से इस सड़क को ‘अनूठी पहल’ कहा गया था। लेकिन हकीकत यह है कि बिना पर्याप्त निगरानी और गुणवत्ता परीक्षण के इस तकनीक को लागू किया गया। नतीजा – पहली ही बारिश ने लाखों की लागत से बनी सड़क की नींव हिला दी।
ग्रामीणों का आरोप: घटिया निर्माण और अनदेखी
स्थानीय ग्रामीणों ने पहले ही निर्माण कार्य पर सवाल उठाए थे। उन्होंने आरोप लगाया कि घटिया सामग्री और जल्दबाज़ी में की गई निर्माण प्रक्रिया ने सड़क की मजबूती को कम कर दिया। लेकिन उनकी शिकायतों को नजरअंदाज कर दिया गया।
अब जब सड़क बर्बाद हो चुकी है, तो वही ग्रामीण आक्रोशित हैं और प्रशासन से जवाब मांग रहे हैं।
PMGSY अधिकारी का बयान
इस विषय में SDO अनिल सहारे ने जानकारी दी कि उन्हें सड़क की स्थिति के बारे में सूचना मिली है और संबंधित एजेंसी से जवाब मांगा जा रहा है। दोषियों पर कार्रवाई की बात कही गई है, लेकिन ग्रामीणों का विश्वास अब डगमगा चुका है।
सवाल: क्या प्लास्टिक सड़क सिर्फ प्रचार था?
यह प्रोजेक्ट पर्यावरण के अनुकूल तकनीक के रूप में प्रचारित किया गया था, लेकिन इसका गिरना अब कई सवाल खड़े करता है। क्या इस योजना का उद्देश्य सिर्फ सोशल मीडिया की वाहवाही थी? क्या बिना परीक्षण और निगरानी के केवल दिखावे के लिए प्लास्टिक तकनीक अपनाई गई?
ग्रामीण क्षेत्रों में सड़कों की अहमियत
बस्तर जैसे आदिवासी और दूरस्थ क्षेत्र में सड़कें केवल सफर का साधन नहीं, बल्कि जीवनरेखा हैं। वहां की सड़कें यदि एक महीने भी न टिकें, तो यह न केवल तकनीकी असफलता है, बल्कि सरकारी अनदेखी का जीता-जागता उदाहरण भी है।
राशि बर्बाद, जवाबदार कौन?
96 लाख रुपये जनता की मेहनत की कमाई से खर्च हुए। अब जब सड़क जर्जर हो चुकी है, तो यह सवाल जरूरी है – क्या जांच के बाद केवल एक एजेंसी पर ठीकरा फोड़ देना काफी होगा?